नई दिल्ली (अनिरुद्ध शर्मा). हिमालय पर्वत का भारतीय उपमहाद्वीप के जलवायु परिवर्तन में अहम योगदान है। इसका धंसना और खिसकना अन्य कारणों के साथ भू-जल स्तर में बदलाव पर निर्भर करता है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ जियोमैग्नेटिज्म (आईआईजी) के वैज्ञानिकों ने अध्ययन में पता लगाया है कि भू-जल में कमी आने से इंडियन टेक्टोनिक प्लेट के खिसकने की दर में 12% कमी आई है। भू-जल की कमी का पता लगाने के लिए किए गए इस अध्ययन का एक निष्कर्ष यह भी है कि भूकंप का खतरा भी कम हुआ है। जमीन के नीचे टेक्टोनिक प्लेट के आपस में टकराने से ही भूकंप आते हैं। जब प्लेटों के खिसकने की दर कम होगी, तो भूकंप भी कम आएंगे।
हिमालयी क्षेत्र सिस्मिक जोन-5 में, ज्यादा संवेदनशील
भारत का हिमालयी क्षेत्र सिस्मिक जोन-5 में आता है। यह भूकंप के लिहाज से देश में सबसे ज्यादा संवेदनशील है। इस जोन में उत्तर-पूर्वी इलाका, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड, गुजरात का कच्छ, उत्तर बिहार और अंडमान निकोबार द्वीप शामिल हैं। जर्नल ऑफ जियोफिजिकल रिसर्च में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार पानी एक लुब्रिकेटिंग एजेंट (चिकनाई देने वाले पदार्थ) के रूप में काम करता है। इसलिए सूखे मौसम में फाल्ट (आंतरिक भूखंड) के फिसलने की दर कम हो जाती है।
नासा के ग्रेस सैटेलाइट से अध्ययन में मदद मिली
आईआईजी के वरिष्ठ वैज्ञानिक सुनील सुकुमारन बताते हैं कि पिछले दशकों में हिमालय की तलहटी और गंगा पट्टी के मैदान लगातार डूब रहे हैं और इसके आसपास के इलाकों में भूस्खलन व टेक्नोटेनिक हलचल रिकॉर्ड की गई है। जमीन के नीचे पानी की मात्रा और सतह पर भूखंड के भार के अंतर की गणना अत्यंत जटिल है। अध्ययनकर्ता अजीत साजी ने बताया कि उन्होंने ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) और ग्रैविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (ग्रेस) के डेटा का इस्तेमाल कर सतह के नीचे भू-जल मात्रा में अंतर की गणना की। नासा ग्रेस सैटेलाइट केे डेटा से आईआईजी को हिमालयी क्षेत्र में जल विज्ञान को समझने में मदद मिली। 2002 में लॉन्च इस सैटेलाइट से नासा महाद्वीपों में पानी व पहाड़ों पर जमी बर्फ की निगरानी करता है।
टेक्टोनिक प्लेट एक साल में 4-5 मिमी खिसकती है
धरती में 12 टेक्टोनिक प्लेट हैं। ये प्लेट अपने स्थान से हिलती, घूमती और खिसकती रहती हैं। ये एक साल में अमूमन अपने स्थान से 4-5 मिमी तक खिसक जाती हैं। यह ऊपर-नीचे या अगल-बगल किसी भी दिशा में खिसक सकती हैं। इस अध्ययन से यह समझने में मदद मिली कि जल विज्ञान जलवायु को कैसे प्रभावित करता है।