महाभारत में एक छोटा अध्याय है, जिसका नाम है, ‘आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अध्याय 92’। इसमें लिखा गया एक श्लोक कुछ इस तरह से है :
अभ्यागतं श्रान्तमनुव्रजन्ति देवाश्च सर्वे पितरोSग्नयश्च। तस्मिन् द्विजे पूजिते पूजिता: स्यु-र्गते निराशा: पितरो व्रजन्ति।।
अर्थात, जब थका हुआ अतिथि (अभ्यागत) घर पर आता है, तब उसके पीछे-पीछे समस्त देवता, पित्रदेव और अग्नि भी पदार्पण करते हैं। यदि उस अतिथि की पूजा हुई तो उसके साथ उन देवताओं आदि की भी पूजा हो जाती है और उसके निराश लौटने पर वे देवता, पितर आदि भी हताश होकर लौट जाते हैं। हालांकि यह, अश्वमेध यज्ञ के बाद भगवान श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को दिया गया धर्मोपदेश था।
मुझे यह श्लोक और प्रसंग मुम्बई में अपने एक मित्र के कारण याद आया। मेरा यह मित्र गुरुवार सुबह इसलिए बहुत चिड़चिड़ा रहा था क्योंकि एक दूर के रिश्तेदार ने सुबह 5 बजे उसके घर के दरवाजे पर दस्तक दी। वजह, रिश्तेदार के घर तक जाने वाली बस का बंद हो जाना थी क्योंकि कोरोना वायरस के कारण राज्य सरकार ने एहतियाती प्रतिबंध के कदम उठाए हैं। यह सुनने के बाद, जब मैंने अपने मित्र के सामने उसके रिश्तेदार का पक्ष यह कहते हुए लिया कि ‘वह बेचारा क्या करता, जबकि एक कॉफी शॉप से लेकर होटल तक सब कुछ बंद है, उनमें फ्यूमिगेशन चल रहा है और आने-जाने के लिए गाड़ियां भी नहीं मिल रही!’ मित्र ने कहा, ‘मैं परेशानी समझता हूं लेकिन, बिना फोन किए कोई ऐसे कैसे किसी दूसरे के घर पहुंच सकता है?’ मैंने तर्क देते हुए कहा ‘मान लो, अगर वो तुम्हें कहीं से फोन भी करता तो उस समय रात के 3:30 बज रहे होते और इसके बाद तुम्हारी डेढ़ घंटे की नींद मारी जाती!’ यह सुनकर वह शांत हो गया, लेकिन वह खुश नहीं था क्योंकि उसे लग रहा था घर में बिन बुलाया अतिथि आ गया। ध्यान दीजिए, उसका घर मुम्बई में 20 करोड़ की कीमत वाला एक सी-फेसिंग अपार्टमेन्ट है। मैंने अपने मुम्बई वाले मित्र को समझाया कि ‘तिथि’ का मतलब है नियत समय, जबकि ‘अतिथि’ का मतलब है कि ऐसा व्यक्ति जो बिना पूर्व सूचना दिए पहुंच जाता है। मैंने कहा, इस सुबह जो रिश्तेदार तुम्हारे घर बिना बताए पहुंचा वह थका हुआ था। इसीलिए तुम्हारे पास मदद की आस लिए पहुंचा। तुम्हें तो खुद को भाग्यशाली समझना चाहिए क्योंकि अपनी भागमभाग वाली जिंदगी में तुम्हें शायद ही किसी अतिथि के स्वागत का मौका मिलता होगा। इसलिए आज अगर ये अवसर मिला है तो जो कुछ कर सकते हो, तुम्हें करना चाहिए।’ मैंने जब ये सब कहा तो उसे याद आया कि कैसे उसके दादा-दादी अचानक घर आए ‘अतिथि’ का उत्साह से स्वागत करते हुए सबको जगाते हुए कहते थे, ‘अरे उठो-उठो, देखो कौन आया है’! और उस समय भले ही वह मेहमान बार-बार निवेदन भी करता था कि घर में किसी को परेशान मत करो तो भी बड़े-बुर्जुग मानते नहीं थे।
अगर हम आज के दौर के बच्चों के साथ ऐसा करेंगे तो वे उल्टे हम पर यह कहते हुए बरस पड़ेंगे कि, हमने उनकी प्राइवेसी में खलल डाला है और आज के ‘मॉर्डन कोड ऑफ कंडक्ट’ वाली दुनिया में किसी अनजाने अतिथि का सूरज निकलने से पहले घर आने को गलत व्यवहार की तरह लिया जाता है। यात्राओं पर रोक, लोगों को बिना बड़ी जरूरत घर से निकलने की पाबंदी कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण को रोकने के उपाय हैं। लेकिन इस महामारी का असली समाधान (एंटीडॉट) लोगों को एक-दूसरे से जुदा करना (सेग्रिगेशन) नहीं, बल्कि एक-दूसरे का सहयोग करना (कोऑपरेशन) है। ऐसा सहयोग जो इंसानियत का सिर ऊंचा करे, ‘अतिथि देवो भव:’ के अर्थ को सही सिद्ध करे। महामारियों ने करोड़ों इंसानों की जान ली है। लेकिन, इसके बावजूद जिस चीज ने दुनिया को फिर से खड़ा किया और जीने लायक बनाए रखा, वह सहयोग की भावना है और इसीलिए हमारे पुरखों ने हमें इंसानियत को सबसे ऊपर रखना सिखाया, जिसका सीधा सा मतलब अलगाव और अकेलापन नहीं, साथ मिलकर मुसीबतों का मुकाबला करना है। आज अलगाव का स्पष्ट मतलब सरकार द्वारा अस्थायी तौर पर लगाए गए ऐसे प्रतिबंध है जिससे कि इस महामारी पर काबू किया जा सके।
फंडा ये है कि, हर किसी को आज की मुश्किल परिस्थितियों को देखते हुए खुद को अलग-थलग रखने में समझदारी रखनी चाहिए, लेकिन ध्यान रखिए कि ये सिर्फ कुछ समय के लिए होना चाहिए, न कि हम इंसानों को इसे अपनी स्थायी आदत बना लेना चाहिए। हर तरह से इंसानियत सर्वोपरि है।